Osho monks are happy on the death ::

दर्शन ब्यूरो। रहस्यवादी आचार्य रजनीश अपने जीवन के अंतिम वर्षों में ओशो के नाम से जाने गए। 19 जनवरी को उनकी पुण्यतिथि है। उनकी एक पुस्‍तक का नाम है, “मैं मृत्‍यु सिखाता हूं”। इसमें उन्‍होंने स्‍वेच्‍छा से मृत्‍यु को अंगीकार करने और अशरीरी अनुभवों के बाबत बातें कहीं थीं।

मृत्यु को संवारने की कला सीखने के बाद उन्होंने भी अपना कलात्मक पदार्पण किया। 19 जनवरी 1990 को शाम 5 बजे पुणे के एक कम्यून में उनका निधन हो गया। उनका कहना था कि जैसे जन्म को उत्सव की तरह हर्षोल्लास से स्वीकार किया जाता है, वैसे ही मृत्यु को भी मनाना चाहिए।

उनकी मृत्यु के बाद संन्‍यासियों ने इस प्रथा का पालन किया। अंतिम संस्कार से पहले उनके पार्थिव शरीर को हॉल में रखा गया और फोटो खिंचवाई गई। संन्‍यासियों ने उनकी मृत्यु का जश्न मनाया।

ओशो ने पुणे के एक कम्यून में अंतिम सांस ली। शाम 5 बजे के बाद उनके पार्थिव शरीर को बुद्धा हॉल लाया गया। उनके शव को देखकर ओशो के संन्‍यासियों रोने की बजाय हंसने लगे। वे उछल-कूद कर नाचने लगे। उन्होंने अपने गुरु की मृत्यु को स्वीकार किया और जश्न मनाया। वह उत्सव और आनंद जिसे गुरु ने अपने संन्‍यासियों को अभ्यास करना सिखाया। संन्‍यासियों ने इसे व्यवहार में लाया।

उनके निधन पर कोई दुख नहीं हुआ। न आंसू बहाए, न मातम मनाया। उनकी मृत्यु के बाद कोई शोक नहीं था। ओशो के उपदेशों के अनुसार उनके संन्‍यासियों ने उत्साहपूर्वक ओशो की अंतिम यात्रा निकाली। ओशो को विभिन्न शाही परिधानों में फोटो खिंचवाना पसंद था। वह अपने लग्जरी लाइफस्टाइल की वजह से हमेशा सुर्खियों में रहते थे। इसलिए मरने के बाद भी संन्‍यासियों ने अलग-अलग कपड़े पहनकर तस्वीरें खिंचवाईं।

ओशो संन्यासी मृत्यु का उत्सव मनाते हैं

आइए आपको बताते हैं। तब ओशो संन्यासी मृत्यु का पर्व मनाते हैं। इस दौरान सड़क पर खड़े लोग सहम गए। लेकिन ओशो समाज अब इसे हल्के में लेने लगा है। जब पुणे के कम्यून में एक साधु की मृत्यु होती है, तो आनंद और तेज संगीत का उन्माद शुरू हो जाता है।

जय-जयकार के साथ अंतिम यात्रा निकाली जाती है। नेपाल के ओशो तपोवन आश्रम में ओशो की समाधि भी बनाई गई है। समाधि में जाकर संन्‍यासियों को सुखी होने का प्रशिक्षण दिया जाता है। किसी रिश्तेदार की मौत के बाद हंसी-खुशी और नाच-गाकर अंत्येष्टि की जाती है।

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